Class 12th || Chapter No. 1 Chapter Name स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था Free Notes In Hindi
Class – 12th Economics
अध्याय 1. स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था
भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का मुख्य उदेश्य:
(i) औपनिवेशिक शासन का मुख्य उदेश्य इंग्लैंड में तेजी से विकसित हो रहे औद्योगिक आधार के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को केवल कच्चा माल प्रदायक तक ही सिमित रखना था |
(ii) भारतीय संसाधनों का केवल शोषण मात्र उसका उद्देश्य था |
(iii) भारतीय अर्थव्यवस्था का लयबद्ध तरीके से शोषण किया गया |
(iv) ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का उद्देश्य अपने मूल देश के आर्थिक हितों का संरक्षण और संवर्धन ही था |
भारतीय अर्थव्यवस्था का औपनिवेशिक शोषण :
(i) कृषि क्षेत्र का औपनिवेशिक शोषण : जिसमें भू-राजस्व की जमीदारी प्रथा द्वारा किया गया | वे जीतनी भी चाहे राशि वसूल सकते थे |
(ii) औद्योगिक क्षेत्र का शोषण : भारतीय अर्थव्यवस्था का मुख्य धारा उस समय हस्तशिल्प था जिसे ब्रिटेन में बनी मशीनी वस्तुओं ने धिर्रे धीरे विनाश कर दिया |
(iii) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का शोषण : इस व्यापार का शोषण विभेदनकारी नीतियों को लागु कर किया गया | जिसमें भारतीय कच्चे माल का शुल्क मुक्त निर्यात किया गया जबकि ब्रिटिश वस्तुओं का शुल्क-मुक्त आयत किया गया, इससे ब्रिटेन की वस्तुए भारत में आकर सस्ती हो जाती थी | यहाँ की वस्तु विदेश में जाकर सस्ती हो जाती थी |
औपनिवेशिक काल में भारतीय अर्थव्यवस्था के क्षेत्रक :
(i) कृषि (ii) औद्योगिक क्षेत्रक (iii) विदेशी व्यापार
कृषि :
औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था का मुख्य साधन कृषि ही था जिसकी 85% आबादी जो गाँव में रहती थी कृषि पर ही आश्रित थे |
कृषि क्षेत्रक की गतिहीनता का मुख्य कारण :
(i) कृषि क्षेत्रक की गतिहीनता का मुख्य कारण औपनिवेशिक शासन द्वारा लागु की गई भू-व्यवस्था प्रणालियों को ही माना जा सकता है |
(ii) जमीदारी व्यवस्था में कृषि कार्यों से होने वाले समस्त लाभ को जमींदार ही हड़प जाते थे |
(iii) औपनिवेशिक शासकों ने कृषि क्षेत्रक की दशा को सुधारने के लिए कुछ नहीं किया |
(iv) भू-राजस्व व्यवस्था की पीड़ादायी शर्तें जिसमें निर्धारित समय पर यदि भू-राजस्व जमा नहीं कराया जाता था तो किसानों के अधिकार छीन लिए जाते थे |
(v) निम्न स्तर की प्रौद्योगिकी के साथ-साथ सिंचाई सुविधाओं का आभाव का होना |
(vi) कृषि का व्यवसायीकरण का होना - कृषि के व्यवसायीकरण के कारण नकदी फसलों की ही उच्च उत्पादकता थी, परन्तु यह लाभ भारतीय किसानों को नहीं मिल पा रहा था | क्योंकि उन्हें खाद्यान्न की जगह नकदी फसलों का ही उत्पादन करना पड़ रहा था |
(vii) कृषि में निवेश की कमी : भारतीय किसानों के पास कृषि में निवेश लिए नहीं संसाधन थे न तकनीक थी और नहीं कोई प्रेरणा |
औद्योगिक क्षेत्रक :
कृषि की ही भांति औद्योगिक क्षेत्रक औपनिवेशिक शासन में कोई मजबूत आधार का विकास नहीं कर पाया |
इसके निम्नलिखित कारण थे :
(i) आधुनिक औद्योगिक आधार का न होना |
(ii) भारत में वि-औद्योगीकरण (उद्योगों का विनाश ) के पीछे विदेशी शासकों की दोहरी निति और शोषण का उदेश्य |
(iii) इंग्लैंड में विकसित आधुनिक उद्योगों के लिए भारत को एक कच्चा माल का निर्यातक बनना |
(iii) अपने उत्पादों के लिए भारत को ही एक बाज़ार के रूप में विकसित करना |
(iv) शिल्पकला के पतन से भारत में बेरोजगारी का फैलना |
(v) पूंजीगत उद्योगों का प्राय: आभाव का होना |
विदेशी व्यापार :
विदेशी व्यापार के क्षेत्र में भारत का इतिहास बहुत पुराना है |
विदेशी व्यापार के पतन का कारण :
(i) औपनिवेशिक सरकार द्वारा अपनाई गई वस्तु उत्पादन, व्यापार और सीमा शुल्क की प्रतिबंधकारी नीतियों का भारत के विदेशी व्यापार की संरचना, स्वरुप और आकार पर बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ा |
(ii) भारत सिर्फ कच्चे उत्पादक जैसे रेशम, कपास, ऊन, चीनी, नील और पटसन आदि का निर्यातक ही बन कर रह गया |
(iii) भारत के आयात-निर्यात पर औपनिवेशिक सरकार का एकाधिकार का होना |
(iv) बुलियन (सोना तथा चाँदी) के आयात के स्थान पर अंतिम औद्योगिक वस्तुओं का आयात होने लगा जो मुख्यत: ब्रिटेन से ही आ रही थी |
जनांकिकीय परिस्थिति:
जनांकिकीय संक्रमण के प्रथम और द्वितीय सोपान का विभाजन वर्ष: वर्ष 1921 को जनांकिकीय संक्रमण के प्रथम और द्वितीय सोपान का विभाजन वर्ष माना जाता है |
जनांकिकीय स्थिति का संख्यात्मक चित्रण:
साक्षरता दर : साक्षरता दर 16 प्रतिशत से भी कम थी | जिसमें महिला साक्षरता दर नगण्य केवल 7 प्रतिशत आंकी गयी थी |
मृत्यु दर : सकल मृत्यु दर काफी ऊँची थी | शिशु मृत्यु दर अधिक चौंकाने वाला था | उस समय 218 प्रति हजार थी | आज यह 63 प्रति हजार हो गई है | उच्च शिशु मृत्यु दर निर्धनता को दर्शाता है |
जीवन प्रत्याशा स्तर : उस समय केवल 32 वर्ष थी जबकि आज यह 63 वर्ष पर पहुँच गई है |
व्यावसायिक संरचना:
(A) कृषि: कृषि सबसे बड़ा व्यवसाय था, जिसमें 70-75 प्रतिशत जनसंख्या लगी थी। उसी अवधि में पंजाब, राजस्थान और उड़ीसा के क्षेत्रों में कृषि में लगे श्रमिकों के अनुपात में वृद्धि आँकी गई |
(B) विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्रक: विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्रकों में क्रमशः 10 प्रतिशत तथा 15-20 प्रतिशत जन-समुदाय को रोजगार मिल पा रहा था। विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्रकों का महत्त्व तदनुरूप बढ़ रहा था।
आधारित संरचना की स्थिति:
(i) औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत देश में रेलों, सड़क व जल परिवहन का विकास किया गया |
(ii) सड़कों तथा रेलों के विकास के साथ-साथ औपनिवेशिक व्यवस्था ने आंतरिक व्यापार तथा
समुद्री जलमार्गों के विकास पर भी ध्यान दिया।
(iii) बंदरगाहों का बड़े स्तर पर निर्माण हुआ |
(iv) डाक-तार आदि का विकास हुआ |
भारत में ब्रिटिश शासन के कुछ सकारात्मक योगदान:
(i) आधारित संरचना का विकास जैसे यातायात सुविधाएँ, विशेष कर रेलों के रूप में किया गया |
(ii) बंदरगाहों का विकास
(iii) डाक तथा टेलीग्राफ सेवाओं का प्रावधान
(iv) ब्रिटिश सरकार ने एक सशक्त एवं कुशल प्रशास्नात्मक ढाँचे की विरासत छोड़ी |
भारत में औपनिवेशिक शासन की आर्थिक नीतियों का केंद्र बिंदु:
भारत में औपनिवेशिक शासन की आर्थिक नीतियों का केंद्र बिंदु स्वार्थपूर्ण था जिसका उदेश्य केवल ब्रिटिश शासन को लाभ पहुँचाना था न की भारतियों का विकास करना था |
(i) औपनिवेशिक शासन द्वारा जो थोड़े बहुत आर्थिक नीतियाँ लागु की गई और जो विकास हुए इसका ध्येय जनसामान्य को अधिक सुविधाएँ प्रदान करना नहीं था। ये कार्य तो औपनिवेशिक हित साधन के ध्येय से किए गए थे।
(ii) जो सड़कें उन्होंने बनाईं, उनका ध्येय भी देश के भीतर उनकी सेनाओं के आवागमन की सुविधा तथा देश के भीतरी भागों से कच्चे माल को निकटतम रेलवे स्टेशन या पत्तन तक पहुँचाने में सहायता करना मात्रा था।
(iii) भारत में विकसित की गई मँहगी तार व्यवस्था का मुख्य ध्येय तो कानून व्यवस्था को बनाए रखना ही था।
रेलवे का विकास से भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना में प्रभाव :
रेलों ने भारत की अर्थव्यवस्था की संरचना को दो महत्त्वपूर्ण तरीकों से प्रभावित किया।
(i) इससे लोगों को भूक्षेत्रीय एवं सांस्कृतिक व्यवधानों को कम कर आसानी से लंबी यात्राएँ करने के अवसर प्राप्त हुए |
(ii) भारतीय कृषि के व्यावसायीकरण को बढ़ावा मिला। किंतु, इस व्यावसायीकरण का भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं के आत्मनिर्भरता के स्वरूप पर विपरीत प्रभाव पड़ा |
पूँजीगत उद्योग : पूँजीगत उद्योग वे उद्योग होते हैं जो तत्कालिक उपभोग में काम आने वाली वस्तुओं के उत्पादन के लिए मशीनों और कलपुर्जों का निर्माण करते हैं।
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